May 10, 2025

पहले सूरजकुंड मेले में गोबर लीपने बुलाई थी भंवरी, आज परिवार बढ़ाता है मेले की शोभा

0
1
Spread the love
Faridabad News, 06 Feb 2019 : अंतर्राष्ट्रीय ख्याती प्राप्त कर चुका फरीदाबाद का सूरजकुंड क्राफ्ट मेला आज बेशक हर साल करोड़ों लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बन चुका है लेकिन इस मेले को सजाने और यहां तक लाने के लिए बुनियाद को कई लोगों ने मजबूत किया है। इन्हीं में एक नाम शामिल है भंवरी देवी का।
हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने व दिल्ली के आस-पास लोगों को एक बेहतरीन मनोरंजन देने के लिए 1987 में जब मेले की तैयारी शुरू की गई तो इसके स्वरूप को लेकर कई तैयारियां की गई। चूंकि मेला अरावली की पहाडिय़ों की मनोरम छटा के बीच था इसलिए इसे स्थाई निर्माणों के बगैर पारंपरिक लुक देने का निर्णय लिया गया। इसी में इसकी दीवारों को गोबर से लीपाई करने का निर्णय लिया गया। हरियाणा व राजस्थान की महिलाएं अपने घरों को गोबर की लीपाई कर उन्हें सजाती थी। ऐसे में मेले को पारंपरिक लुक देने के लिए कुछ महिला श्रमिकों को गोबर लीपाई के लिए बुलाया गया था। इन्हीं महिला श्रमिकों में एक थी राजस्थान के नागौर की रहने वाली भंवरी देवी।
भवंरी देवी ने लिपाई का काम खत्म होने के बाद मेला अधिकारियों से आग्रह किया कि एक कोने में वह भी अपना कुछ समान बेच सकती हैं क्या? मेला अधिकारियों ने तुरंत उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया और उसे एक जगह बैठकर सामान बेचने की अनुमति दे दी गई। पहले मेले में मात्र 10 से 12 शिल्पकार ही आए थे। भंवरी ने घर के रद्दी सामान से सजावटी सामान तैयार किया और बेचना शुरू कर दिया। पहला मेला था और समय कम इसलिए वह रात को सामान तैयार करती और दिन में उसे बेच देती। मेले में आने वाले लोगों को दिखाने के लिए वह घर से हाथ की आटा चक्की भी ले आई।
इसके बाद वह हर साल कई महीने पहले से ही मेले की तैयारी करने लगी। अपने बेटे मदन लाल को उसने सहयोग के लिए साथ मिलाया और फिर मेले में आने वाले वाले लोगों के लिए भंवरी का सामान अब पहचान बन चुका था। यही नहीं भंवरी ने हर साल मेले की दीवारों को विभिन्न शैलियों में गोबर लिपाई कर कच्चे-पक्के रंगों से सजाने में भी कोई कसर नहीं रखी। यही वजह थी कि 1990 में भंवरी देवी को कलाश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यही नहीं बाद में उसे शिल्प सम्मान से भी नवाजा गया। हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल महावीर प्रसाद जब 1994 में मेला देखने आए तो उनकी कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें पांच हजार रुपये इनाम भी दिया।
वर्ष 2015 में भंवरी देवी की मृत्यु हो गई तो परिवार ने उसकी परंपरा को निभाए रखा। आज उनकी पुत्रवधु गुलाब देवी उनकी परंपरा को निभा रही है। बड़ी चौपाल के अपना घर के सामने ही स्टाल लगाने वाली गुलाब देवी बताती हैं कि कसीदाकारी और गोटे का काम उन्होंने अपनी सास से ही सीखा है। इसमें वह सूई धागे और कतरनों का प्रयोग करती हैं। वह इस कला के माध्यम से बंदनवार, लड़ी, झूमर, हाथ से तैयार राजस्थानी गुडिया, गोटा एंब्रायडरी की चोरी, कठपुतली और राजस्थानी साफा भी तैयार करते हैं। उनके पुत्र मदनलाल मेघवाल का कहना है कि यह मेला अब उनकी परिवार की परंपरा से जुड़ा है। वह यहां कमाई नहीं बल्कि अपनी मां की विरासत को आगे बढ़ान के लिए पहुंचते हैं।

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *