गणेश चतुर्थी विशेष: श्री गणपति का प्राकट्य ही अंतहृर्दय में आत्मबोध का जागरण है : दिव्य गुरु आशुतोष महाराज


New Delhi : ‘गणपति बाप्पा मोरया!’ ‘गणपति बाप्पा मोरया!’… महाराष्ट्र की गलियों में आप इन जय-धुनों को इस माह भरपूर रूप से सुन सकते हैं। जैसे-जैसे गणेशोत्सव की पदचाप बढ़ती है और यह महापर्व निकट आता है, वैसे-वैसे यह जयधुन ऊँची और प्रखर होती चली जाती है-‘गणपति बाप्पा मोरया!’लेकिन क्या जो हम कहते हैं, उसका सही अर्थ भी समझते हैं? जो हम करते हैं, उन क्रियाओं में छिपे रहस्यों को भी जानते हैं? क्या है इसका गूढ़ार्थ? ‘बाप्पा’ प्यार से भगवान गणपति के सगुण स्वरूप को कहा गया है। ‘मोरया’, जिसे मराठी में ‘समोर या’ भी कहते हैं, का मतलब होता है-‘सामने आ!’ इसलिए ‘गणपति बाप्पा मोरया’ का पूरा अर्थ हुआ-‘हे गणपति देवा! तू सगुण रूप में हमारे सामने आ! तू साकार होकर हमारे जीवन में उतर!’

ऐसा नहीं है कि बाप्पा ने हमारी इस विनय को हमेशा अनसुना किया हो। मुद्गल पुराण में विघ्नविनाशक गणपति के अनेक अवतारों का वर्णन है, जिनमें वे सगुण रूप धरकर हमारे सामने आए। अगर उन अवतारों के केवल नाम-नाम भी हम यहाँ लिखेंगे, तो न जाने कितने पृष्ठ भर जाएँगे? इसलिए कह सकते हैं कि अनंत बार बाप्पा ने हमारी ‘गणपति बाप्पा मोरया’ की अर्जी को स्वीकार किया है।

इन समस्त अवतरणों से सम्बन्धित अनेक गाथाएँ पुराणों में दी गई हैं। भिन्न होने पर भी इन सभी गाथाओं में कुछ तथ्य एक समान ही हैं। जैसे कि- किसी ‘विकार’ नामक असुर का उत्पन्न होना… उसका दैत्य गुरु का संबल पाकर सबल हो जाना… फिर आतंक व अत्याचार का तांडव करना… देवों और सज्जनों को प्रताड़ित करना… सज्जनों की विकल पुकार पर किसी सत्पुरुष या सद्गुरु का पदार्पण होना और पीड़ितजनों को एकाक्षरी मंत्र प्रदान करना… सज्जनों का साधनारत होना… उनकी साधना के अलौकिक प्रभाव से ब्रह्मरूप श्री गणेश का अवतरित होना व क्रूर असुर को परास्त करना।

दरअसल, यह सम्पूर्ण घटनाक्रम स्पष्ट रूप से अलंकारिक है। हमें गूढ़ संदेश देता है। इन पौराणिक गाथाओं का मंचन कहीं बाहर नहीं, हमारे हृदयों में होता है। आज हमारी हृदय-भूमि पर भी कभी कोई विकार सिर उठाता है, कभी कोई विकार! ये विकार ‘असुर’ ही तो हैं। मत्सरासुर, मदासुर, मोहासुर, लोभासुर, क्रोधासुर, कामासुर, ममतासुर (आसक्ति) व अभिमानासुर- हर सूँ हमारी हृदय-नगरी में उत्पात मचाते रहते हैं। हमारे शुभ विचारों व भावनाओं (देवों अथवा सज्जनों) को प्रताड़ित करते हैं। हमारे जीवन को विकारों, विषयों व अधर्म का जीवंत उदाहरण बना डालते हैं। ऐसे में क्या किया जाए? श्री गणपति की अवतार-गाथाएँ हमें प्रेरणा देती हैं। ऐसे में, एक ब्रह्मज्ञानी सत्पुरुष ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। अतः हमें प्राणपन से उन्हीं की खोज करनी चाहिए और उनसे एकाक्षरी मंत्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

यह एकाक्षरी मंत्र क्या है? वास्तव में, यह महिमावान एकाक्षर हिन्दी वर्णमाला का कोई ‘स्वर’ या ‘व्यंजन’ नहीं है। इसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो वही आदिनाम है, परम शब्द, word है, जो सृष्टि के आदिकाल में भी था। इसी आदिनाम से सृष्टि का विस्तार हुआ और यही हमारे प्राणों को संचालित कर रहा है। एकाक्षर = ‘एक’+ ‘अक्षर’, याने वह ‘एक’ सत्ता, जो ‘अ’+‘क्षर’ है जिसका कभी क्षरण नहीं होता। सारांशतः एकाक्षर, उस ‘एक अविनाशी’, ‘एक अनश्वर’ सत्ता को ही कहा गया। सद्गुरु अपनी महती कृपा से (हमारे कानों में कोई स्वर नहीं डालते, अपितु) ब्रह्मज्ञान प्रदान कर इसी अविनाशी ब्रह्म को या आदिनाम रूप तरंग को हमारे भीतर प्रकट कर देते हैं। इस अलौकिक ब्रह्मज्ञान की साधना के फलस्वरूप ही साधक में श्री गणेश का प्राकट्य होता है।

अतः श्री गणपति तत्त्वरूप में ‘सुबोध’ या ‘विवेक’ के देवता हैं। श्री गणपति का प्राकट्य अंतहृर्दय में आत्मबोध का जागरण है। विवेक का प्रकाश अथवा आत्मा-ज्ञान होते ही हमारे भीतर का अज्ञान जड़ित साम्राज्य खंड-विखंड होने लगता है। उसमें निवास कर रहे असुर त्राहि-त्राहि कर उठते हैं और परास्त होते चले जाते हैं। उनकी दशा और दिशा दोनों ही सकारात्मक होती चली जाती है। यही है, अंतर्हृदय में श्री गणपति का अवतरण!दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ।