अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर अपने वृद्ध माता पिता को पुनः युवा बनाने का संकल्प लें : आशुतोष महाराज

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New Delhi, 28 Sep 2020 : आज समाज में वृद्धोंकी दशा बहुत दयनीय हो गई है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग घर केमात्र फर्नीचर या अवांछनीय वस्तुएँ बनकर रह गए हैं। ऐसे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल समाज के समक्ष आ खड़े होते हैं- बच्चों को अपने वृद्ध माता-पिताकी सेवा किस प्रकार करनी चाहिए? वृद्धों को कैसा होनाचाहिए तथा उनकी समाज में क्या भूमिका है? सामाजिक ढाँचेमें क्या परिवर्तन करना होगा, ताकि वृद्धजनों की समस्याओंका समाधान हो सके? इन सभी प्रश्नों का उत्तर अपौरुषेयवेदों में मिलता है। ऋग्वेद के अनेक मंत्र वृद्धों और उनकीसमस्याओं को समर्पित हैं।इन मंत्रों को जानने से पूर्व ज़रा विचार करते हैं किआखिर वृद्धजनों से संबंधित समस्याओं का मूल कारण क्याहै! निःसन्देह वार्धक्य ही वृद्धों की दिक्कतों का मूल कारणहै। बुढ़ापे की वजह से ही वे शारीरिक व मानसिक रूप सेकमज़ोर पड़ जाते हैं। उनकी यही अशक्तता उन्हें दूसरों परनिर्भर बना देती है। इसी निर्भरता के कारण ही सारी तकलीफें जन्म लेती हैं। हमारे वैदिक ऋषि इस गहरे तत्त्व से भली-भाँतिपरिचित थे। तभी तो उन्होंने वेदों में स्थान-स्थान पर इस भावको अनेक मंत्रों के माध्यम से दोहराया। समाधान भी इसी केआधार पर दिया।देखिए, ऋग्वेद का यह मंडल- 1/110/8… इसके देवताऋभव हैं। ‘ऋभव’माने ‘सत्य से प्रकाशित’। इसमें ऋषिगणसंतानों को क्रांतिकारी स्वर में सम्बोधित करते हुए कहते हैं-हेधनुर्धारी वीरों के सपूतों! तुम अपने वृद्ध माता-पिता कीसर्वोत्तम सेवा करो। उनकी आज्ञाओं का पूर्णतः पालन करो।पुत्रों! अपने कर्मों द्वारा बड़े-बुज़ुर्गों को पुनः युवक की भाँतिस्वस्थ और तंदुरुस्त बना दो।क्या बेहतरीन आह्वान है! ऐसे ही, एक अन्य ऋग्वेदीय मंत्रको पढ़िए- ‘पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना॥’ (ऋ. 4/33/3)अर्थात्‌ ऐसे मेधावी विद्वानों की प्रशंसा व अनुसरण करनाचाहिए, जो अपने वृद्ध माता-पिता की उत्तम सेवा करके उन्हेंयुवक के समान ऊर्जावान व स्वस्थ बना देते हैं। उन्हें दोबारायुवक-युवतियों में परिणत कर देते हैं।दोनों ही मंत्रों में संतानों को सम्बोधित करते हुएकहा गया कि सेवा व आज्ञा पालन द्वारा वृद्धजनों को युवाबना दो। वेदों की यह आज्ञा अनुपम है, अद्वितीय है। पर प्रश्न उठता है कि वृद्धों की किस प्रकारसेवा करनी चाहिए? किस प्रकार उन्हें पुनः युवक बनाया जासकता है? इस संदर्भ में वेदों का क्या निर्देश है?वृद्धों को युवा बनाने का उपक्रम तीनसोपानों से होकर गुज़रता है।

पहला सोपान- वृद्ध माता-पिताकी व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा किया जाए। इस विषय मेंअथर्ववेद(8/10/3-4) का मंत्र स्पष्ट करता है- संतान को माता-पिता की व्यक्तिगतआवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। इसके लिए प्रति माहवृद्धों को मासिक वृत्ति देने का प्रावधान बनाया गया। इसी बातको स्पष्ट करते हुए एक अन्य मंत्र (ऋ. 6/20/11) में कहा गया-तू पूज्य माता-पिता को निरंतर धन देता रह और घर मेंभी उन्हें उत्तम स्थान प्रदान कर। ऐसा नहीं कि घर के किसीकोने में थोड़ा बहुत स्थान दे दिया। बल्कि उनको रहने के लिएस्वच्छ सर्वोच्च स्थान दे! पहनने के लिए अच्छे नवीन वस्त्रदे। साथ ही, यह भी आदेश दिया गया कि विशेष अवसरों,त्यौहारों के मौकों पर वृद्धों को उत्तम पदार्थ भेंट कर पूरासम्मान देना चाहिए। इस प्रकार से अभिभावकों की सेवा करउनका हितकारी बनना ही संतान का कर्तव्य है।

दूसरा सोपान – सामाजिक ढांचे मेंपरिवर्तन। समाज में ऐसे प्रावधानों को लागू करना चाहिए,जिससे बुज़ुर्गों की दिक्कतों को दूर किया जा सके। ऋग्वेद(7/43/3) का मंत्र इसका सूत्र देता है- जो विद्वत जन माता-पिता का अच्छे से भरण-पोषणकर उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं, उन्हें राष्ट्र के उच्चतमपदों पर विराजमान करना चाहिए। जब भी उच्च रिक्त पदोंको भरने के लिए आवेदन दिया जाए, तो उसमें यह शर्तभी रखी जानी चाहिए कि क्या आवेदक अपने माता-पिताकी सेवा करता है? उनका आदर-सम्मान करता है? और जोइस शर्त पर खरा उतरे, ऐसी सत्यनिष्ठ संतान को ही उच्चपदाधिकारी के रूप में चुना जाना चाहिए। यह वेदों का प्रस्तावहै। यदि ऐसे ही कई परिवर्तन सामाजिक ढाँचे में किए जाएँ,तो इस समस्या का हल मिल सकता है।ऋषियों द्वारा संग्रहित वेद केवलऔपचारिक तौर पर या बाहरी रूप से ही परिवर्तन की बातनहीं करते। बल्कि किसी भी दुविधा के निवारण के लिए वेदोंद्वारा सामाजिक व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन के निर्देशभी दिए गए हैं। वेदों का तीसरा सोपान ऐसा ही है, जो वृद्धजनों की समस्याओं को समूल नष्ट कर सकता है।

तीसरासोपान – 

आध्यात्मिक रूप से वृद्धों व उनकी संतानों काउन्नत होना। इस तथ्य में महात्मा-गणों का बहुत ही सूक्ष्म औरसमग्र चिंतन देखने को मिलता है।वेद एक कदम आगे की बात करते हैं। वेदों कीऋचाएँ माता-पिता के आचार-व्यवहार पर भी प्रकाश डालतीहैं। इनमें यह भी निर्देशित है कि माता-पिता को कैसा होनाचाहिए। क्योंकि वृद्धजनों की तकलीफें मात्र पुत्र-पुत्रियों केबदलने व सुधरने से नहीं सुलझेंगी। बल्कि वृद्धों को भीनिर्देशानुसार व्यवहार करना चाहिए। किसी ने ठीक ही तो कहाहै- ताली एक हाथ से नहीं बजती। इसलिए बड़े बुज़ुर्गों कोभी ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे घर में खाली बैठकर समयनष्ट करते रहें। या इधर-उधर की बातों, निंदा-चुगली में हीवक्त को व्यतीत कर दें। जीवन को पूर्णता से न जीकर, बोझसमझ कर काटते रहें। बच्चों को हर बात पर टोकते रहें औरअपनी संकीर्ण मानसिकता व अंधविश्वासी प्रथाओं को भीनई पीढ़ी पर थोपते रहें। बच्चों की स्थितियों और परिस्थितियोंको समझकर सामंजस्य बनाने की जगह अपनी ज़िद्द पर अड़ेरहें। ऐसे में वृद्धजनों की समस्याओं का पूर्णरूपेण समाधाननहीं मिलेगा।

अतः परेशानियों से निदान हेतु वृद्धों की भूमिका भीमहत्त्वपूर्ण है। इस विषय में वेद स्पष्ट उद्घोष करते है। वृद्धोंकी भूमिका, उनके सामाजिक व्यवहार के विषय में ऋषिगण(यजु.2/32) कहते हैं- हे आदरणीय वृद्धजनों! हम आपको ब्रह्मानंद रस सेसराबोर व ज्ञान से परिपक्व होने के लिए बारंबार नमस्कारकरते हैं। परम ज्ञानी, ब्रह्म में निष्ठ, परमानंद में लीन वृद्धों-आपको नमन है। हम आपको चुगलीरस या वागरस के लिएप्रणाम नहीं करते। बल्कि आपके सामर्थ्य व अनुभव के लिएआपके समक्ष मस्तक नवाते हैं।ऋषि आगे कहते हैं- हे वृद्धजनों! आपकेदुःख-निवारण-सामर्थ्य के लिए आपको नमन है। आप जोपरिवार में शोषित व दुखीजन की समस्या का अपने अनुभवद्वारा निवारण करते हैं… आपके इस सामर्थ्य को शत्‌ शत्‌नमस्कार है। आपमें जो संतान को संस्कारों से पोषित करनेकी कला है, उत्तम निर्माणशैली है- उसके लिए हम आपकोनमस्कार करते हैं। हम स्वार्थपूर्ण होकर आपकी शारीरिक वआर्थिक क्षमता के लिए आपको प्रणाम नहीं करते, बल्किआपकी आत्मशक्ति के लिए आपका वंदन करते हैं। हेआदरणीय वृद्धजनों, महानुभावों! परिवार में किसी के प्रतिहो रहे अन्याय व अत्याचार के विरोध में आप जो अपनीआवाज़ बुलंद करते हैं; घर में सभी सदस्यों में सामंजस्यबिठाने की विशेष भूमिका अदा करते हैं, उसके लिए हमआपको नमन करते हैं।

अतः ऐसे वृद्ध माता-पिता के लिए ही वेदों ने उद्गारकिया- ‘पितरः वः नमः’- हम आपको नमस्कार करते हैं।तदुपरांत ऐसे माता-पिता से याचना व प्रार्थना की गई- ‘नःगृहान्‌ दत्त’- आप हमारे सभी सहनिवासियों को उच्च आदर्शोंव नैतिक मूल्यों से पोषित करो।सार रूप में- वृद्धजनों से चरित्रवान, ब्रह्म में निष्ठ, नैतिकमूल्यों और आत्मशक्ति से सराबोर होने की अपेक्षा की गईहै। ऋग्वेद (5/77/2) के एक अन्य मंत्र के भी यही उद्गारहैं- ‘पूर्व: पर्वो यज़मानो वनीयान्॥’अर्थात्‌ केवल आयुमें वृद्ध नहीं… अपितु वह वृद्ध जो दान, यज्ञ, सत्संग आदिआध्यात्मिक गतिविधियों में संलग्न है; तप और ज्ञान मेंवृद्ध है, वही सेवा व आदर के योग्य है। ऐसे ही पितरों कोसम्मानीय बताया गया। दूसरे शब्दों में यदि वृद्ध आध्यात्मिकतौर पर सशक्त व पोषित हैं, तो वे स्वयं ही सम्मान अर्जित कर लेते हैं।

इस तीसरे चरण- आध्यात्मिक सोपान का एक दूसरा पक्ष भी है।संतान को कैसा होना चाहिए- यह दूसरा पक्ष इस पर प्रकाश डालताहै। इस हेतु वेद पुनःआदेश देते हैं- पुत्र-पुत्रियों को भी अध्यात्म सेपोषित होना चाहिए। कारण कि आध्यात्मिक या अध्यात्म पोषित संतानोंके हृदय ही करुणा, दया, प्रेम, सौहार्द जैसे सुसंस्कारों से पूरित हो सकतेहैं। ऐसे बच्चे ही माता-पिता का आदर-सम्मान करने के साथ सेवा करअपना उत्तरदायित्व निभाते हैं। अतः पुत्र-पुत्रियों का आध्यात्मिक संपदा सेपरिपूर्ण होना भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है।यदि उक्त समीकरण के इन तीनों पक्षों को अक्षरशः समाज में स्थापितकर दिया जाए, तो वृद्धजनों से सम्बन्धित कोई समस्या ही नहीं रहेगी। हरघर में प्रेम-सौहार्द और सदाचार के पुष्प पल्लवित होंगे।

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