जानिए कैसे सूर्य सिद्धांत के अनुसार मकर संक्रांति से उत्तरायण काल का आरंभ होता है : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 13 Jan 2021 : हमारी भारतीय संस्कृति आनंद मूलक, आनंद लक्षी और आनंदसृजक संस्कृति है। इसका प्रमुख कारण हैं- हमारे उल्लासपूर्ण पर्व और उत्सव। परन्तु इन पर्वों का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक अभिप्राय न समझने के कारण हम इनकी वास्तविक गरिमा से जुड़ नहीं पाते हैं। इनके लाभों से भी सर्वथा वंचित रहजाते हैं। पर्वों की परम्पराएँ हमारे लिए कर्मकांडों का व्यापार बनकर रह जाती हैं। इसलिए आज जनवरी माह के एक सांस्कृतिक पर्व में निहित परम कल्याणकारी आध्यात्मिक अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं। यह पर्व है-मकर संक्रांति। इसे उत्तरायण की आरंभिक बेला भी कहते हैं। आइए, इसपर्व के गूढ़ार्थ में उतरें।यह घटना महाभारत कालीन है। भीष्म पितामहशर शैय्या पर लेटे हुए थे। उन्हें इच्छा मृत्यु कावरदान प्राप्त था। इसलिए वे अपने प्राण त्यागनेके लिए एक महत्त्वपूर्ण घड़ी की प्रतीक्षा कररहे थे। वे ऐसा क्यों कर रहे थे? शरों की शैय्यापर, रक्तरंजित स्थिति में कष्ट क्यों उठा रहे थे?इसका उत्तर हमें पौराणिक ग्रंथ देते हैं। ऐसावर्णित है कि भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण मेंजाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सांस्कृतिक भारतवर्ष में ऐसी मान्यता रही है कि उत्तरायण में प्राण त्यागने वाले सद्गति को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत दक्षिणायन में प्राण त्यागने वाले दुर्गतिको प्राप्त होते हैं।

आइए, सबसे पहले इस मान्यता को खगोलीय दृष्टिकोण से समझते हैं। अगर हम पृथ्वी के मानचित्र को देखें, तो उसमें तीन प्रमुख रेखाएँ पृथ्वी से होकरगुज़रती दिखती हैं। इसमें पहली है, कर्क रेखा। दूसरी है, विषुवत रेखा या भूमध्य रेखा और तीसरी है, मकर रेखा। विषुवत रेखा पृथ्वी के मध्य से गुज़रती है। विषुवत रेखा के उत्तर के भागको उत्तरी गोलार्ध तथा दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहा जाता है। अंतरिक्ष में पृथ्वी के घूमने के कारण वर्ष भर में सूर्यआधा समय उत्तर पूर्व की और आधा समय दक्षिण पूर्व की तरफ जाता आता दिखाई देता है। इसी प्रक्रिया में सूर्य ‘मकररेखा’तक जाता है। मकर रेखा पर पहुँचने की स्थिति को ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है। मकर संक्रांति के पश्चात्‌ सूर्यऊपर या उत्तर दिशा को ओर बढ़ता है। सूर्य की इस उत्तर गतिको ‘उत्तरायण’की संज्ञा दी गई है। उत्तर में ‘आयन’अर्थात्‌ गतिशीलता। इससे उत्तरी गोलार्ध में दिन का समय बढ़ने औररात्रि का समय घटने लगता है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार‘मकरसंक्रांति’ (14 जनवरी) से ‘कर्क संक्रांति’ (16 जुलाई) केबीच का समय (6 माह) ‘उत्तरायण’काल कहलाता है। इसमेंसूर्य की गति मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर होती है। इसीका पूरक है, ‘दक्षिणायन’, जो अगले 6 माह अर्थात्‌ ‘कर्कसंक्रांति’से ‘मकर संक्रांति’ तक का काल होता है। इसमें सूर्यकी गति कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर होती है।अब यहाँ एक बात विचारणीय है। जो खगोलीय तथ्य ऊपरलिखे गए, अगर उन्हें ज्यों का त्यों माना जाए, तो बड़ा विचित्रआशय सामने उभर कर आता है। यह कि साल के आधे महीनोंमें (मकर संक्रांति से कर्क संक्रांति तक) मृत होने वाले लोगअपने आप सद्गति को प्राप्त होते हैं। वहीं साल के अगले 6 महीनों (कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति तक) में मरने वालेअधोगति को प्राप्त होते हैं।परन्तु क्या ‘मृत्यु’ और ‘गति’के बीच में इतना स्थूलसम्बन्ध हो सकता है? हमारी भारतीय संस्कृति में तो बिल्कुलभी नहीं! इसलिए हमें इस पूरे प्रकरण को शास्त्रीय दृष्टि सेभी समझना होगा।

प्रश्नोपनिषद्‌ (1/9) में ऋषि कहते हैं-संवत्सरो वै प्रजापति स्तस्याय ने दक्षिणंचोत्तरंच। तद्ये ह वै तदिष्टापूर्ते कृतमित्युपासतेते चान्द्रमसमेव लोकमभिजयन्ते।त एव पुनरावर्तन्ते तस्मादेत ऋषय:प्रजाकामा दक्षिणं प्रतिपद्यन्ते। एष ह वै रयिर्यः पितृयाणः॥ अर्थात् संवत्सर (वर्ष) के दो भाग हैं। छह मास तक सूर्यदक्षिण दिशा की तरफ जाता है। इस काल को ‘दक्षिणायन’कहते हैं। छह मास तक वह उत्तर दिशा की ओर जाता है।इस समय को ‘उत्तरायण’कहते हैं।जो सकाम भाव से कर्म करते हैं, फल-लाभ की इच्छा रखते हैं, सांसारिक भोगों को चित्त में स्थान देते हैं- ऐसे लोगजन्म-मरण के चक्र में फँसे रहते हैं। इनका मार्ग ‘दक्षिणायन’है। इसे ‘रयि मार्ग’भी कहते हैं, जिसमें भोग-वृत्तियाँ अत्यंतप्रबल होती हैं। पुत्र-पौत्रों की कामना और मोह ज़ोर मारतारहता है। इसलिए यह मार्ग ‘पितृयाण’अर्थात्‌ पिता-पितामहबनने का मार्ग भी कहलाता है। इसके विपरीत जब सूर्य उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है, तब मनुष्य में त्याग व निवृत्ति भावउमड़ने लगता है। यह दिव्य भाव उत्पन्न कर देव स्वरूप होनेका मार्ग है। इसे ‘उत्तरायण’या ‘देवयान’मार्ग भी कहते हैं।गीता के आठवें अध्याय में श्लोक (23-26) में भगवान श्री कृष्ण भी अर्जुन से यही गूढ़ तथ्य कहते हैं-यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लःषण्मासा उत्तरायणम्‌। तत्र प्रयाता गच्छन्तिब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥धूमोरात्रिस्तथा कृष्णःषण्मासा दक्षिणायनम्।तत्रचान्द्रमसंज्योतिर्योगी प्राप्यनिवर्तते॥शुकलकृष्णेगतीह्येते जगत: शाश्वते मते।एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥अर्थात्‌ हे भरतकुलश्रेष्ठ अर्जुन! जिन कालों अथवा मार्गों मेंप्राण त्यागकर गए आस्तिकजन अनावृत्ति (अपुनर्जन्म)औरआवृत्ति (पुनर्जन्म) को प्राप्त होते हैं, उन कालों या मार्गों कोमैं तुमसे कहूँगा।अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष तथा 6 मास वाला उत्तरायण-इनसे युक्त मार्ग पर मृत्यु के उपरान्त जब योगीजन बढ़ते हैं,तो वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष तथा 6 माहवाला दक्षिणायन- इनसे युक्त मार्ग पर जब मृत्योपरांत मनुष्यजन बढ़ते हैं, तो वे चन्द्रमा की ज्योति पाकर अर्थात्‌ स्वर्गसुख भोगकर वापिस पृथ्वी पर लौट आते हैं। ये दो प्रकार के‘शुक्लपक्ष’ (देवयान) और ‘कृष्णपक्ष’ (पितृयाण) मार्ग सनातनमाने गए हैं। एक से मनुष्य अनावृत्ति अर्थात्‌ अपुनर्जन्म को,दूसरे से आवृत्ति अर्थात्‌ पुनर्जन्म का प्राप्त होता है।इन शास्त्रीय विवेचनाओं से यह स्पष्ट सिद्ध होता है किबात सिर्फ उत्तरायण और दक्षिणायन‘काल’ की ही नहीं,‘मार्ग’की भी है। मनुष्य की ‘मनोवृत्ति’और ‘साधना-प्रकार’की भी है। महापुरुषों ने ‘कर्मकाण्ड मार्ग’की तुलना में ‘ज्ञानमार्ग’ को श्रेष्ठ बताया है। बाह्य नहीं, अंतर्जगत की साधना कोउत्तम घोषित किया है। इसलिए इस प्रकरण को हमें आंतरिकपरिप्रेक्ष्य में ज़रूर समझना चाहिए।वास्तव में, इस सृष्टि का एक अद्भुत रहस्य है-‘जोब्रह्मण्डे सोई पिण्डे’अर्थात्‌ जो खगोलीय क्रम बाहरी ब्रह्माण्डमें है, वही हमारे शरीर के भीतर अंतर्जगत में भी है। हृदयसे हमारे सिर की ओर का भाग ‘उत्तर’और पाँव कीओर का भाग ‘दक्षिण’ को सम्बोधित करता है। योगिक भाषा मेंकहें, तो ‘अनाहत चक्र’से ऊपर ‘सहस्रार चक्र’ तक का भाग‘उत्तरायण पथ’कहलाता है। इसके विपरीत ‘अनाहत चक्र’सेनीचे ‘मूलाधार चक्र’ तक का भाग ‘दक्षिणायन पथ’कहलाता है।उपनिषदों में ब्रह्मरंध्र (सहस्रार चक्र) को ‘ब्रह्मलोक’कहागया है। जैसे छान्दोाग्योपनिषद्‌ (8/1/1) ब्रह्मरंध्र को हृदयाकाशसे इंगित करता है और उसमें ब्रह्म का वास बताता है-यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकंवेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाश-स्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वावविजिज्ञासितव्यमिति॥अर्थात्‌ यह शरीर ब्रह्मकी नगरी है- ब्रह्मपुर है। इसमें शीर्षपर एक ‘दहर’माने छोटा सा कमल है, जो हृदय रूपी मंदिरकहलाता है। इस हृदय मंदिर में सूक्ष्महृदयाकाश है। इसहृदयाकाश के भीतर जो ब्रह्म छिपा है, उसे खोजना चाहिए,उसे जानना चाहिए।अतः इस हिसाब से शीर्षोन्मुख होकर ब्रह्मरंध्रकी ओर बढ़ना‘उत्तरायण’पथ की ओर अग्रसर होना हुआ। यह ब्रह्मप्राप्तिके लिए ‘देवयान पथ’का अनुसरण करना भी हुआ।हमारे अंतर्जगत में कौन सा तत्त्व सूर्य का प्रतीक है?प्रश्नोपनिषद (3/8) में ऋषि कहते हैं-‘आदित्यो ह वै बाह्यःप्राण उदयत्येष…’। इसका तात्पर्य यही है कि जो बाह्य जगतमें सूर्य है, वह अंतर्जगत में ‘प्राण’है। प्राण ही आदित्य रूपहोकर उदय होता है। अतःजैसे बाह्य सृष्टि में सूर्य उत्तरायणव दक्षिणायन पथ पर आता-जाता दिखाई देता है, उसी प्रकारहमारे भीतर सूक्ष्म जगत में प्राण भी गति करता है। जिसकाप्राण नीचे (मूलाधार चक्र) की ओर अधोगामी है,वह मनुष्य‘दक्षिणायन’या ‘पितृयाण’पथ पर चल रहा है। जिसकाप्राण ऊपर (सहस्रार चक्र) की ओर ऊर्ध्वगामी है, वह योगी‘उत्तरायण’या ‘देवयान’पथ का अनुगामी है।भीष्म पितामह ने शर-शैय्या पर लेटे हुए केवल वर्ष केउत्तरायण काल का ही इंतज़ार नहीं किया होगा। निःसन्देह,प्राणों के उत्तरोत्तरविकास का अभ्यास भी किया होगा।सहस्रदल कमल में स्थित ब्रह्म में प्राणों को लीन किया होगा।इसी आंतरिक व सूक्ष्म उत्तरायण स्थिति में मृत होने के कारणभीष्म पितामह परम गति को प्राप्त हुए होंगे। यही सार्थकतात्पर्य है। यहाँ हमें यह भी जानना चाहिए कि यह ‘निम्न’से ‘उच्च’स्तर पर कैसे जाया जाता है? ‘दक्षिणायन’ से ‘उत्तरायण’पथपर प्राणों को कैसे आरोहित करते हैं? इस संदर्भ में, एकघटना का वर्णन मिलता है। कहते हैं, वर्ष का दक्षिणायन कालचल रहा था। ऐसे में आदियोगी शिव दक्षिण दिशा की ओरउन्मुख हो गए और वे दक्षिणमूर्ति कहलाए। इस दक्षिणायन केअज्ञानता व अंधकारमय काल में आदिगुरु दक्षिणमूर्ति ने अपनेशिष्यों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया। उन्हें अंतर्जगत में उतरकर ध्यान-साधना करने के लिए प्रेरित किया। तब शिष्य अपनेआदिगुरु दक्षिणमूर्ति से प्रेरित होकर साधना में लीन हो गए।फिर ऐसा काल या अवस्था आई, जब निरन्तर ध्यान-साधना केप्रभाव से, उन साधकों के प्राण उत्तरोत्तर विकास कर उच्चतमलोक (सहस्रार चक्र) में समाधिस्थ हो गए।अतः स्पष्ट है, केवल एक पूर्ण गुरु और उनके द्वारा प्रदत्तपूर्ण ब्रह्मज्ञानही हमें दक्षिणायन से उत्तरायण पथ का गामीबनाता है। हमें पितृयाण मार्ग के मोह आदि विकारों से निकालकर दिव्य ‘देवयान’मार्ग का राही बना देता है।

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