जाग्रत नारी कलियुग का अंत कर सतयुग लेकर आएगी : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 05 March 2020 : प्रत्येक वर्ष 8 मार्च को, पूरे विश्व में, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। कहीं तो इसे महिलाओं के सम्मान-दिवस के रूप में मनाया जाता है, कहीं महिला-पुरुष समानता की स्थापना हेतु एक स्मृति-दिवस के रूप में। पर विडम्बना देखिए! सन् 1908 से लेकर 2020 तक, विश्वस्तर पर 109 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाए जाने के बावजूद भी समाज में नारी का उचित स्थान व सम्मान आज तक एक अभीष्ट ही बना हुआ है। एक ओर नारी हर क्षेत्र में शिखर पर पहुँच रही है, जैसे कि- अंतरिक्ष यात्रा के क्षेत्र में- कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, वैलेन्टीना तेरेश्कोवा, एलीन कोल्लिंस इत्यादि।

खेल-कूद के जगत में- सानिया मिर्ज़ा, साइना नेहवाल, पी. वी. सिन्धु, एम. सी. मैरीकॅम, साक्षी मलिक इत्यादि।
वित्त एवं उद्योग (Finance&Entrepreneurship) के क्षेत्र में- अरुंधति भट्टाचार्य, चंदा कोचर, इंदिरा नुई इत्यादि।

जैव प्रौद्योगिकी (bio-technology) में- मज़ूम्दार शॉ आदि।
वहीं दूसरी ओर समाज में नारी के प्रति हिंसा व अपराध लगातार बढ़ रहे हैं।

क्या आप जानते हैं?

• विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार विश्व में हर 3 में से 1 महिला (33.3%) घरेलू हिंसा से पीड़ित है। इनमें से लगभग 38% महिलाओं की पति या अन्य निकट सम्बन्धी पुरुष द्वारा हत्या कर दी जाती है।

• अंतर्राष्ट्रीय एसिड सर्वाइवर्स ट्रस्ट (Acid SurvivorsTrustInternational) के अनुसार प्रत्येक वर्ष महिलाओं पर तेज़ाब आक्रमण (Acidattacks) के 500 मामले दर्ज़ होते हैं।

• अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (InternationalLabourOrganization) के अनुसार सन्‌ 2014 में विश्व भर में 1.14 करोड़ महिलाओं को ज़बरन मज़दूरी करने हेतु मजबूर किया गया, जिनमें अधिकांश महिलाएँ यौन उत्पीड़न की शिकार हुईं।

• संयुक्त राष्ट्र (UnitedNations) के अनुसार प्रत्येक वर्ष विश्व में 2,50,000 बलात्कार के मामले दर्ज़ होते हैं। अमेरिका में हर 5 में से 1 महिला के साथ बलात्कार होता है। सन्‌ 2013 में, कई देशों में हुए एक सर्वे में चीन के 22.2% पुरुषों ने बलात्कार करना स्वीकार किया। उनमें से 55% पुरुषों ने ऐसा कृत्य 1 से अधिक बार किया तथा 86% पुरुषों ने इसे अपना यौन अधिकार मानकर ऐसा किया था। भारत में हर घंटे 2 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है।

हैरत की बात तो यह है कि उपरिलिखित हिंसा व अपराधों की शिकार मात्र निरक्षर या ग्रामीण नारी ही नहीं, बल्कि शिक्षित, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर एवं आधुनिक नारी भी है। ऐसे में, शिक्षा एवं रोज़गार को महिला सशक्तिकरण के आधारभूत स्तम्भ कहना कहाँ तक उचित होगा- इस पर गौर करना आवश्यक हो गया है।

हालांकि संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थान ने कई वर्षों के शोध, सर्वेक्षण इत्यादि के बाद यही प्रतिपादित किया है- ‘नारी सामाजिक विकास की केन्द्र बिन्दु है।’ साथ ही, अपने MillenniumDevelopmentGoals (सहस्राब्दी संवर्धन लक्ष्य) के आठ उद्देश्यों में से तीसरे उद्देश्य ‘महिला सशक्तिकरण व लिंग समानता’को अन्य सात उद्देश्यों को सिद्ध करने की कुंजी कहा। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव श्री बान की मून ने सन्‌ 2014 में अपने विचारों में कहा- ‘महिलाओं को समानता का अधिकार देना विश्व की प्रगति का पर्याय है।’ वहीं UNDP की रेबेका ग्रिनस्पन ने कहा- ‘विश्व की आर्थिक उन्नति, सामाजिक उत्थान व प्राकृतिक संरक्षण आदि बिन्दुओं पर चिरस्थायी विकास में नारी का किरदार मुख्य भूमिका रखता है।’

परन्तु फिर भी नारी को सम्मान व अधिकार देना आज के पुरुष समाज के लिए बड़ा दुष्कर-सा कार्य है। दरअसल, नारी शोषण की जड़ है- लिंग आधारित रूढ़िवादिता एवं पक्षपात (GenderStereotyping)। कैरोल हिमोविट्ज और टिमोथी शेलहार्ड्ट ने वॉलस्ट्रीट जर्नल में इसी तथ्य को इस प्रकार कहा- ‘Eventhose few women who rose steadily through the ranks eventually crashed into an invisible barrier. The executive suite seemed within their grasp, but they just couldn’t break through the ‘glass ceiling’.’अर्थात्‌ वे गिनी चुनी नारियाँ भी जो भरसक प्रयास द्वारा उच्चपदों को छूने लगती हैं, एक अदृश्य छत से टकरा कर वहींतक सीमित रह जाती हैं। इस दीवार को उन्होंने ‘ग्लास सीलिंग’ अर्थात्‌ कांच की अदृश्य दीवार की उपमा दी।

आर्थिक उन्नति की सबसे निचली सीढ़ी पर रहने वाली मज़दूर महिला से लेकर कंपनी का नियंत्रण करने वाली महिला तक यह ग्लास सीलिंग निर्विवाद रूप से देखने को मिलती है। इस ग्लास सीलिंग के कारण बताए जाते हैं-

१. महिलाओं की देर रात तक ऑफिस में रुककर काम करने की तथा ऑफिस की लेट नाइट पार्टियों में जाने की असमर्थता; संतान के जन्म पर मैटरनिटी लीव की आवश्यकता; घर में बच्चों या वृद्धों के बीमार होने पर ऑफिस न जा पाने की विवशता।

२. महिलाओं की टेक्नॉलजी, सॉफ्टवेयर ऑपरेटिंग तथा नीति निर्माण (policymaking) जैसे कार्यों में अयोग्यता होने की मिथक अवधारणा।

३. महिलाओं के संवेदनशील स्वभाव को उनके स्वभाव की अस्थिरता समझना।

अफसोस की बात तो यह है कि हमारा समाज जितना भी कह ले कि अब तो समय बदल चुका हे… ये तो पुरानी बातें हैं… हमारे घरों में कोई भेदभाव नहीं होता… सच तो यह है कि लड़के-लड़की के बीच भेदभाव आज भी आधुनिक जीवन की कड़वी सच्चाई है। यदि ऐसा नहीं है, तो क्यों बेटी से अधिक बेटे को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने में आपको प्रसन्नता होती है? क्योंह बहू का नौकरी करना आपको अधिक भाता नहीं है? क्योंि जमीन या सम्पत्ति के निर्णय में आप घर की स्त्रियों को शामिल नहीं करते? क्योंा बेटी के जन्म से अधिक आपको बेटे के जन्म पर खुशी होती है? क्यों पति-पत्नी के काम से एकसाथ घर लौटकर आने पर भी चाय या खाना बनाने की ज़िम्मेदारी पत्नी की ही होती है? गाड़ी में आपके साथ बैठी महिला यदि मार्ग बताए, तो आपको विश्वास क्योंनहीं होता?क्यों सड़क पर किसी भी गाड़ी को गलत चलते देख आपकी पहली प्रतिक्रिया- ज़रूर कोई महिला होगी- ही होती है? क्योंड आदर्श व्यक्तित्व कहलाने के लिए पुरुषों से नौकरी के साथ-साथ घर के काम व बच्चों की देखभाल की उम्मीद नहीं की जाती?

क्योंकि लिंग आधारित रूढ़िवादिता व पक्षपात के रूप में वह अदृश्य ग्लास सीलिंग समाज के मानसिक ढाँचे में है। और यह मात्र आज की बात नहीं, हर युग में रही है। द्वापर के जयद्रथ, अश्वत्थामा, दुर्योधन, दुःशासन आदि; त्रेता के रावण, शतमुख रावण, दशमुख रावण आदि और सतयुग के नहुष, शुम्भ, निशुम्भ व महिषासुर आदि पुरुष इसी ग्लास सीलिंग के सृजेता थे। इन सभी ने नारी को अत्यन्त दुर्बल व मात्र भोग की वस्तु समझा।

जब-जब समाज के पुरुषों ने नारी को शौर्यबल विहीन अबला और मात्र कामिनी के रूप में देखकर उसके सामर्थ्य का न्यूनतम आंकलन किया, तब-तब समाज में जागृत महिलाएँ परिवर्तन प्रतिनिधि बनकर सामने आईं। सामाजिक रूढ़ियों व भ्रान्तियों की अदृश्य ग्लास सीलिंग को आत्मबल के आधार पर पहले स्वयं उन्होंने पार किया और फिर अग्रणी होकर अन्य महिलाओं को भी इसे पार करवाया। वैदिक युगीन ब्रह्मवादिनी गार्गी ने साधारण महिलाओं व बच्चियों के लिए प्रथम गुरुकुल शुरु किया। त्रेता में देवी सीता ने अपने पति श्रीराम के साथ वनवास धारण कर नारियों के सुकोमल तथा निर्बल होने की अवधारणा का प्रयोगात्मक खंडन किया। ऋषि अत्रि की पत्नी देवी अनसूया ने अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर वन में सरोवर प्रकट किया। एक समाजसेविका की भूमिका में प्राकृतिक संतुलन के अनुरक्षण हेतु प्रयास किया। द्वापर में सती द्रोपदी ने अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर स्वयं के निर्वस्त्र किए जाने के प्रयास को विफल किया। कलियुग में भक्तिमती मीराबाई ने सामाजिक पटल पर सती प्रथा व घूँघट प्रथा का विरोध किया। रानी लक्ष्मीबाई ने स्त्रियों की सेना तैयार कर अंग्रेजों से लोहा लिया। इन सभी दृष्टांतों में नारी ने ससीम देहबल से असीम आत्मबल तक की यात्रा को तय किया और स्वयं के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध हुई।

आज भी नारी अपने पूर्ण सामर्थ्य को प्राप्त कर अपने उचित स्थान व सम्मान को पा सकती है। आवश्यकता है उसे स्वयं को जागृत करने की। तृतीय नेत्र को जागृत कर अपने छिपे हुए आयाम को खोजने की। वहीअनंत शक्तियों का भण्डार है। शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ जब आत्मिक सशक्तिकरणहोगा, तभी महिलाओं के सम्पूर्ण सशक्तिकरण की परिभाषापूर्ण होगी। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक एवंसंचालक श्री आशुतोष महाराज जी ने ऐसी जागृत नारियोंके लिए तो यहाँ तक कह दिया-

अपने पीयूष अनुदानों का जन जन को पान कराएगी।
आएगा वह ब्रह्ममुहूर्त्त जब नारी सतयुग लाएगी।

अर्थात्‌ नारी कलियुग का अंत कर सतयुग लेकर आएगी। समाज की अज्ञानता व नकारात्मकता को ज्ञान व सकारात्मकता में रूपांतरित करेगी। नारी- परिवर्तन प्रतिनिधि बनकर सामने आएगी और मात्र नारी जाति को ही नहीं, समस्त वैश्विक समाज को श्रेष्ठता के शिखरों तक पहुँचाएगी।

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