युवा दिवस विशेष: क्रांतिकारी युवा स्वामी विवेकानंद बनने के सूत्र : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 08 Jan 2021 : इस बार हम आपके लिए भारत के क्रांतिकारी युवा संत स्वामी विवेकानंद  के कुछ विशेष जीवन पहलुओं को लेकर आए है। इनमें से अधिकतर मूल प्रतियाँ हैं, जो स्वामी के जीवन संघर्ष के विलक्षण पहलुओं को उजागर कर रही हैं। इन पहलुओं ने स्वामी विवेकानंद जी को आकार दिया; नरेन्द्र को विश्व-विजेता विवेकानंद बनाया।

  • सबसे पहले उस प्रतिमा की बात करते हैं जिसमें स्वामी रामकृष्णपरमहंस अपने शिष्यों के मध्य उपस्थित हैं। परमहंस जी भाव-समाधिकी अवस्था में लीन दिखाई हो जाया करते थे। यहअवस्था उनकी ब्रह्म-निष्ठता की परिचायक है। केवल ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के समान सद्गुरु ही ऐसा सामर्थ्य रखते हैं,जो एक जिज्ञासु युवा नरेन्द्र को आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक क्रांति के पुरोधा विवेकानंद में परिवर्तित कर दिखाते हैं। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे- ‘यदि मैंने कभी एक भीहितकारी वचन बोला या कर्म किया, तो उसके वास्तविक स्रोत मेरे ठाकुर, मेरे गुरुदेव ही हैं।’

इसलिए विवेकानंद बनने की ओर पहला चरण है- ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत’- उठो! जागो!… और एक पूर्णमहापुरुष को गुरुदेव के रूप में प्राप्त करो!

  • सन्‌ 1886 में ठाकुर के देहावसान के बाद स्वामी विवेकानंद व उनके गुरु-भाइयों के जीवन ने एक करवट ली।अत्यंत कठिन दौर उनके जीवन में आया। न उनके पास पेट भरने को पर्याप्त भोजन था, न तन को ठीक से ढकनेको पर्याप्त वस्त्र और न ही सिर छुपाने के लिए किसी मकान की छत। सन्‌ 1887 में उन्होंने वराह नगर में स्थित एक उजाड़-वीरान खंडहरमें रहने का फैसला किया, जिसे भूत-प्रेतों से ग्रस्त माना जाता था।

अभाव की इस स्थिति में भी उनके पास कुछ अनमोल था। वह था, अपने गुरुदेव के ज्ञान को विश्व की कगार तक पहुँचानेका जज़्बा! यही कारण है कि इन शिष्यों ने उस भूतहा खंडहर में, विपरीत परिस्थितियों के बीच रहकर प्रचंड साधना औरअध्ययन किया। स्वयं का बौद्धिक और आध्यात्मिक निर्माण कर ये सभी अपने ठाकुर के मिशन की नींव के पत्थर बन गए।

अतःविवेकानंद बनने का दूसरा सूत्र है- संघर्ष और साधना!

  • तीसरी प्रतिमाजो भेलूपुर, वाराणसी में स्थित दुर्गामंदिर की है उसकी बात करते है। सन्‌ 1888 के आसपास यहाँ एक ऐसी घटनाघटी, जिसने स्वामी विवेकानंद जी को जीवन का एकमहत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाया। स्वामी जी मंदिर के परिसर में थे,जब उन्हें बंदरों के झुंड ने घेर लिया। भय के मारे स्वामीजी भागने लगे। वानर और अधिक उद्दंड हो गए व गुर्रातेहुए स्वामी जी के पीछे पड़ गए। इतने में एक संन्यासी नेऊँची आवाज़ में पुकारते हुए स्वामी जी को हिदायत दी‘अरे रुको! डरो नहीं! वानरों की आँखों में आँखें डाल करस्थिर खड़े रहो। उनका सामना करो।’ स्वामी जी ने हिदायतका पालन किया और पाया कि वानर भाग खड़े हुए।

अतः विवेकानंद बनने का तीसरा सूत्र है- हिम्मत!साहस! डटे रहने का जज़्बा!

  • अब बात करते है ‘VivekanandRock’ की, जो कन्याकुमारी से 500 मीटरकी दूरी पर स्थित है। इसी चट्टान पर तीन दिवसों (25-27दिसम्बर, 1892) तक स्वामी विवेकानंद जी ने गहन साधनाकी। फलस्वरूप उन्हें एक दिव्यानुभूति हुई, जिसमें उन्होंने अपनेगुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जीको जल-सतह पर चलते वइशारे से उन्हें अपने पीछे बुलाते हुए देखा। इसी प्रेरणा के बादस्वामी जी ने भारत से बाहर विदेश-यात्रा पर जाने का फैसलालिया और शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। उनकीये विदेश यात्राएँ सांस्कृतिक विजय-यात्राएँ थीं, जिनकी शुरुआतव संचालन एक पूर्ण गुरु की आज्ञा और आशीर्वाद से हुआ था।

अतः विवेकानंद बनने का चौथा सूत्र है- एक पूर्ण गुरु कीआज्ञाओं और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आपयंत्र बन जाएँ।

  • शिकागो में भारतीय-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करनेके बाद स्वामी विवेकानंद जी अगस्त, 1894 में ग्रीनएकड़ (GreenAcre) पहुँचे।इसी मैदान में वे अपने इन अनुयायियोंको आध्यात्मिक संदेश व मिशन को आगे बढ़ाने केनिर्देश दिया करते थे। स्वामी विवेकानंद कहीं भी जातेथे, तो लोग उनके व्यक्तित्व कि दिव्यता से अभिभूतहो उठते थे।

अतः विवेकानंद बनने का पाँचवा सूत्र है-सत्यानुसंधान और सतत साधना द्वारा अपने व्यक्तित्वमें दिव्यता अर्जित करो। ऐसी कि आपका आचरण हीसत्संग बनकर मुखर हो उठे।

  • जब विदेश दौरे के बाद स्वामी विवेकानंद जी 19 फरवरी, 1897कोभारत वापिस लौटे तब भारत वापसी पर कलकत्ता में स्वामी जी काभव्य स्वागत हुआ था। भारत माँ का एक अज्ञात पूतअब विश्व विजेता युवा संन्यासी की प्रसिद्धि पा चुकाथा। पर इस स्थल पर हज़ारों भारतवासियों के समक्षउन्होंने जो कहा था, वह आँखों को नम कर देता है-‘पहले मैं भारत से प्यार करता था। पर अब विदेशों कीयात्रा करने के बाद मैं अपने भारत की पूजा करूँगा।’

अतः विवेकानंद बनने का छठा सूत्र- अपनीमातृभूमि और स्वजनों से प्रेम! जन-कल्याण औरलोकसंग्रह हेतु समर्पण का भाव!

  • आखरी प्रतिमा जो स्वामी जी के देह त्याग से पूर्व शिलाँग में खींचा गयाथा। इन दिनों विवेकानंद जी का स्वास्थ्य निरन्तर गिर रहाथा। उनका शरीर काफी कमज़ोर हो गया था। पर मन मेंअभी भी वही स्फूर्ति व उत्साह था, जिसे वे अपने मिशनकी शुरुआत में लेकर चले थे। कहते हैं, इन दिनों मेंभी स्वामी जी निरन्तर सेवा-कार्यों को देखते रहे। उनकीसक्रिय व उत्साही मुद्रा उत्साह जनक थी।

अतः विवेकानंद बनने का सातवां सूत्र है- अथक…अनवरत… कर्मशीलता!

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