संस्कृत के उच्चारण से शरीर के ऊर्जा बिंदु क्रियान्वित होते है : आशुतोष महाराज

0
1870
Spread the love
Spread the love

New Delhi, 27 Aug 2020 : प्रातः की स्वच्छ व शुद्ध हवा… इस ताज़गी के बीच बाग-बगीचों में स्वास्थ्य-लाभ हेतु प्राणायाम और योगाभ्यास करते लोग! यह दृश्य आपने अकसर देखा होगा। पर ज़रा सोचिए, यदि बोलना, पढ़ना और वार्त्तालाप करना भी अच्छी सेहत का पर्याय बन जाए, तो क्या कहने! क्या हुआ? हैरानी हो रही है! चौंकिए मत, क्योंकि यह पूर्णतः संभव है- संस्कृत संभाषण से! बहुत से तथ्य सिद्ध करते हैं कि मात्र संस्कृत बोलने से ही अनेक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। आइए, संस्कृत भाषा में छिपे इन सेहत-सूत्रों को विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं।

संस्कृत भाषा में दो मुख्य बिंदु होते हैं- विसर्ग(:) और अनुस्वार(म्‌)! संस्कृत के अधिकांश पुल्लिंगशब्द विसर्गान्त होते हैं, जैसे कि- छात्र:, आदित्य:,वृक्ष:,भास्कर:, देव: इत्यादि। आप एक बार मुखसे इन शब्दों का उच्चारण करके देखिए। आप जान जाएँगे,इन शब्दों की खासियत यह है कि इनके पीछे विसर्ग लगने सेइनके उच्चारण के दौरान श्वांस बाहर निकलता है। ठीक वैसेजैसे कि कपालभाति प्राणायाम में श्वांस बाहर आता है। तोजितनी बार विसर्ग वाले शब्दों का उच्चारण होता है, उतनी हीबार स्वतः सहज रूप से कपालभाति प्राणायाम होता जाता है।अनायास ही उससे मिलने वाले लाभ भी प्राप्त हो जाते हैं।वहीं संस्कृत के अधिकतर नपुंसक लिंग के शब्द अनुस्वारकी श्रेणी में आते हैं। उदाहरण के तौर पर वनम्‌, पुस्तकम्, वस्त्रम्, भवनम्‌, गृहम्‌, मन्दिरम्। अब ज़रा इन शब्दों के उच्चारणपर गौर कीजिए। उच्चारण के अंत में आपके मुख से भँवरेके गुंजन की आवाज़ सहज ही निकलेगी। जो कि भ्रामरी प्राणायामकी प्रक्रिया है। तो अब जितनी बार संस्कृत के नपुंसकलिंग के ‘अनुस्वारान्त’शब्द बोले जाते हैं, उतनी ही बार भ्रामरी प्राणायाम के लाभ प्राप्त हो जाते हैं।संस्कृत के अधिकांश वाक्यों में अनुस्वार और विसर्ग, दोनोंही प्रयोग होते हैं। इन वाक्यों के उच्चारण में कपालभाति और भ्रामरी- दोनों हीप्राणायाम अनायास ही हो जाते हैं। यदि संस्कृत आम बोल-चालकी भाषा बन जाए, तो फिर बातचीत करते हुए प्राणायाम स्वतः ही होते रहेंगे और स्वास्थ्य लाभ भी मिलते रहेंगे। अतः संस्कृतबोलिए और प्राणायाम के लाभ पाइए।

चलिए थोड़ा और संस्कृत के संदर्भ में जानते हैं। संस्कृत मेंशब्दों के तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन। जबकि अन्य भाषाओं में केवल एकवचन और बहुवचन हीहोते हैं। इनमें संस्कृत का द्विवचन भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंतलाभप्रद है। क्योंकि इसका सम्बन्ध प्राणायाम के बीच-बीच मेंलगाए जाने वाले ‘बंध’से है। दरअसल, योग-प्राणायामकरतेहुए मुख्यतः तीन प्रकार के बंध लगाए जाते हैं- जालंधर बंध,उडि्डयान बंध और मूल बंध। ‘बंध’ अर्थात्‌ रोकना या बाँधना। योग में ‘बंध’ का अर्थ है- शरीर के कुछ भागों में ऊर्जा-प्रवाह को रोकनातथा अन्य भागों में प्रवाहित करना। ताकि भली प्रकार से पूरेशरीर में ऊर्जा का वितरण हो सके। इससे शरीर के अंगों मेंहुआ रक्त का जमाव भी ठीक हो जाता है। इन तीनों बंधों मेंभिन्न-भिन्न स्थानों पर ऊर्जा को रोका जाता है। ये सभी क्रियाएँ ध्यान, एकाग्रता बढ़ाने तथा गले व पेट के रोगों के उपचार में अति लाभकारी होती हैं।अब संस्कृत के विषय पर आते हैं। संस्कृत शब्दों के द्विवचन रूपों का उच्चारण करने से स्वतः ही तीनों बंध लग जाते हैं। जैसे कि ‘देव’ शब्द के द्विवचन सम्बन्धी रूपों को लेते हैं- देवौ, देवाभ्याम, देवयोः। ‘देवौ’ शब्द बोलने पर सूक्ष्म रूप से मूल बंध और ‘देवाभ्याम’ के उच्चारण से उडि्डयान बंध और ‘देवयोः’ के उच्चारण से जालंधर बंध लगता है। अतः यदि संस्कृत को रोजमर्रा की भाषा बना लिया जाए, तो ये यौगिक क्रियाएँ अनायास ही हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाएँगी। फलतः स्वास्थ्य लाभ के अनेक रत्न हमारी झोली में आ गिरेंगे। संस्कृत भाषा की गुण-गाथा केवल यहीं तक सीमित नहींहै। योग व प्राणायाम से मिलने वाले लाभों के अतिरिक्त ‘वाक्‌चिकित्सा’में भी संस्कृत सम्भाषण का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसे समझने हेतु संस्कृत भाषा की एक और विशेषता पर नज़र डालते हैं। यह है- शब्दों को जोड़ने की कला। जब दो शब्दोंका योग किया जाता है, तो उसेसन्धि कहते हैं। उदाहरणतः ‘नमामि अहम्‌’ को सन्धि के पश्चात्‌ ‘नमाम्यहम्‌’बोला जाएगा। ‘इति अहं जानामि’में ‘इति’और ‘अहं’की सन्धि से यहवाक्य बन जाएगा- ‘इत्यहम्‌ जानामि।’

अब आप स्वयं अवलोकन कर सकते हैं कि सन्धि करनेके पश्चात्‌ शब्दों का स्वरूप व उच्चारण बिल्कुल पृथक होगया। अब इस बदले हुए उच्चारण से वाक्‌ इन्द्रिय का प्रयोगविशेष रूप से बढ़ जाता है। मतलब किसन्धि से बने शब्दोंको उच्चारित करने हेतु जिह्वा को विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। यह विशेष प्रयास ही बोलने से सम्बन्धित एक्यूप्रेशर चिकित्साप्रणाली का आधार है। क्योंकि संस्कृत ही एकमात्र ऐसी भाषाहै, जिसके प्रयोग से जिह्वा की सभी माँसपेशियाँ और नाड़ियाँ सक्रिय हो उठती हैं। इससे बोलने से संबंधित समस्याओं कास्वतः हीउपचार हो जाता है।केवल सन्धि ही नहीं, बल्कि संस्कृत शब्दों के विभिन्नप्रकार के उच्चारणों के दौरान भी वाक्‌ चिकित्सा होती है।इन उच्चारणों का प्रयोग करके हमसरलता से वाक्‌ सम्बन्धित समस्याओं से छुटकारा प्राप्त करसकते हैं।

अतः संस्कृत भाषा वाक्‌ चिकित्सा का भी एककारगर साधन है।संस्कृत भाषा की इस विलक्षणता को और बारीकी सेसमझने हेतु इस दिशा में कई अध्ययन व अनुसंधान किएगए। इस प्रयास से इस भाषा के संदर्भ में कुछ और महत्त्वपूर्णतथ्य उजागर हुए। अनुसंधानों ने यह स्पष्ट किया कि संस्कृतभाषा के स्वर विज्ञान का सम्बन्ध मानवीय शरीर के विभिन्न ऊर्जा-बिंदुओं से है। संस्कृत पढ़ने अथवा बोलने से ये ऊर्जाबिंदु उद्दीप्त (stimulate) हो जाते हैं। इससे शरीर मेंऊर्जा के स्तर में वृद्धि होने के साथ-साथ, रोगों का प्रतिरोधकरने की क्षमता भी बढ़ती है। यही तथ्य अमेरिकन हिन्दूयूनिवर्सिटी ने भी एक अध्ययन में सिद्ध किया कि संस्कृतके उच्चारण से शरीर के ऊर्जा बिंदु क्रियान्वित हो जातेहैं। शरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है। इससे मस्तिष्क की कार्यक्षमता संवर्द्धित होती है। तनाव कम होता है तथामस्तिष्क शांत रहता है। वहीं मधुमेह, रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉलभी नियंत्रण में रहता है। संस्कृत बोलना न केवल शारीरिकस्तर पर लाभदायक है। बल्कि इससे व्यक्ति का मानसिक व बौद्धिक स्तर भी तुष्ट रहता है। संस्कृत सीखने मात्र सेमस्तिष्क तीक्ष्ण होता है, एकाग्रता बढ़ती है तथा स्मरण शक्तिमें भी वृद्धि होती है। यही कारण है कि संस्कृत पढ़ने वालेविद्यार्थी गणित व विज्ञान जैसे कठिन विषयों में भी अच्छेअंक प्राप्त करने लगते हैं।

सारतः संस्कृत भाषा केवल विचारों को व्यक्त करने कामाध्यम नहीं है अपितु हर स्तर पर लाभ प्रदायिनी भाषाहै। इसके प्रयोग से व्यक्ति शरीर, बुद्धि, मन- हर स्तर परनिरोगता को प्राप्त करता है। इसलिए इसे सम्पूर्ण विकास की कुंजी कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। ऐसी देवभाषाव अमृतवाणी को शत-शत नमन।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here