बाहरी लोक से’अंतर्लोक’ में पूरी गति से ‘ध्येय’की ओर यात्रा करना ध्यान है : आशुतोष महाराज

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New Delhi, 29 May 2020 : हमारे जीवन के तनाव और व्याकुलता का केवल एक ही कारण है। वह है – अस्थिरता और इससे उबरने के लिए एक ही उपाय है कि हम अपने अस्तित्व के आधारभूत स्थिर-बिंदु को खोजें और उससे जुड़ने की कला सीख लें। हमारे आर्य-ग्रंथों के अनुसार इस कला अथवा स्थिर जीवन की पद्धति को ‘ध्यान’कहा गया। ऐसा नहीं कि आज का समाज इस पद्धति की महत्ता से बेखबर है। आज कुकुरमुत्तों की तरह स्थान-स्थान पर ध्यान केंद्र खुल गए हैं, जिनमें तरह-तरह की मेडिटेशन तकनीकें सिखाई जाती हैं। इन ध्यान तकनीकों ने हमें निःसंदेह सहारा अवश्य दिया, परन्तु इतना अधूरा कि हम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए। अतः इस स्थिति में हमें एक ऐसे अनुभवी डॉक्टर अर्थात् पूर्ण सद्गुरु की दीक्षा खोजनी होगी, जो ध्यान-साधना की सटीक और उपयुक्त विद्या प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हों।

‘ध्यान’ की विशुद्ध परिभाषा हमें प्राप्त होती है- ‘Meditation is not the cessation of outer experiences, dooming of faculties into ‘Nothingness’, rather it’s a re-orientation of them towards the very supramental, Divine element inbuilt within us.’ अर्थात् ध्यान-साधना बाह्य या ऐन्द्रिक अनुभवों का अवरोध करना भर नहीं है। अपने बोध को किसी ‘खालीपन’ पर टिका देना भी नहीं; बल्कि ध्यान स्वबोध को एक दिव्य, अलौकिक, परमोज्जवल तत्व में ले जाना है, जो हमारे अंदर ही समाया है। सारांशतः ‘ध्यान’ सिर्फ आँखें मूंद कर, एक स्थान पर स्थिर होकर ज्ञान मुद्रा में बैठ जाना ही नहीं है। ध्यान बाह्य लोक में स्थित होकर ‘अंतर्लोक’ में पूरी गति से ‘ध्येय’की ओर यात्रा करना है। स्वयं विचार करें- यदि हम एक शिकारी के हाथ में तीर-कमान पकड़ा दें, तो वह क्या करेगा? वह उसी समय प्रत्यंचा चढ़ाकर लक्ष्य (Target) की मांग करेगा। इसी प्रकार हमारी देह रूपी कमान के भीतर भी एक मन रूपी व्याकुल तीर है। उसे अवरोधित करना सम्भव नहीं। उसे भी साध्य-ध्येय की आवश्यकता है। अतः ‘ध्येय’ बिना ‘ध्यान’ असंभव है।

गणित की भाषा में कहें, तो ‘ध्यान’ = ‘ध्याता’ + ‘ध्येय’। ध्यान दो तत्वों का योग है ध्याता (Subject) और ध्येय (Object)। यदि ‘ध्येय’ होगा, तभी ‘ध्यान’ लगेगा। इसलिए आवश्यकता है- ‘ध्येय’ की। ध्येय समक्ष हो, तभी ध्यान का लक्ष्य-बाण सटीक बिंदु पर जा सधता है। अब देखा जाए, ‘ध्याता’ तो हम हैं। परंतु शुद्ध-विशुद्ध ‘ध्यान’ के लिए ‘ध्येय’ होना चाहिए।

‘ध्यान’ = ध्याता+?
अब हम उक्त प्रश्नचिन्ह का ही उत्तर जानेंगे। हमारे समस्त शास्त्र-ग्रंथों के अनुसार इस सकल जगत में साधने योग्य एकमात्र ध्येय वह चिरस्थायी सत्ता है, जो हर मनुष्य के भीतर स्थित ‘प्रकाश स्वरूप आत्मा’ है। यही वह स्थिर परम-बिंदु है, जो स्थायी और नित्य आनंद का केंद्र है। यही वह महा-लक्ष्य है, जिसे बींध कर हमारे मन का विकल तीर शांत हो सकता है। तभी गीता में जब योद्धा अर्जुन ने अपने व्यग्र मन की दशा व दिशा रखी, तो प्रभु श्री कृष्ण ने ‘ध्यान’ की प्रक्रिया के सम्बन्ध में यही कहा- ‘यह चंचल और अस्थिर मन जिन-जिन कारणों से विषयों में विचरण करता है, उन्हें संयमित कर ‘आत्मा’के वश में लाएँ; आत्मा में स्थिर करें।’ ‘आत्मा’रूपी ‘ध्येय’में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है। स्वामी विवेकानंद भी कहा करते थे- ‘I mean by Meditation- the mind trying to stand up on soul.’
अमृत बिंदु उपनिषद में भी ‘ध्यान’ की यही सटीक परिभाषा वर्णित है। उसमें एक जिज्ञासु एक तत्त्वज्ञानी ऋषि से ध्यान का स्वरूप पूछता है। प्रत्युत्तर स्वरूप ऋषिवर कहते हैं- ‘विषयों की ओर दौड़ते मन को पूर्णतया निरोध करके हृदय (यहाँ मस्तक पर स्थित आध्यात्मिक हृदय की बात की जा रही है) में दृढ़ता से स्थित रखा जाए, तब इस प्रकार जो स्व-स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, वही परमपद है।

यहाँ प्रश्न उठता है- मन को ह्रदय में ही क्यों स्थित किया जाए? इसका उत्तर छान्दोग्योपनिषद् के एक मनीषी देते हैं- ‘ह्रदय में ही आत्मा रूपी ध्येय का निवास है- हृदि अयम्।’ अतः मन को निरोध करके हृदय में तब तक केंद्रित करने का प्रयास करें, जब तक मन आत्मा में लीन न हो जाए। यही ‘आत्मज्ञान’ या ‘ब्रह्मज्ञान’ है और यही ‘ध्यान’ भी है।

अपने ‘दिव्य सिम कार्ड’ को एक्टिवेट कराएँ!
यह आध्यात्मिक ‘हृदय’, जो आत्म-तत्त्व (ध्येय) का निवास स्थल है, हमारे मस्तक के बीचोंबीच अर्थात् त्रिकुटि के अंदर स्थित माना गया है। परन्तु यहाँ जानने योग्य बात यह है कि इस त्रिकुटि स्थल पर सीधे मन को एकाग्र करने से भी काम नहीं बनेगा, ध्यान नहीं सधेगा। नेत्र मूंद कर जब आप इस स्थल पर ध्यान एकाग्र करने का प्रयास करेंगे, तो केवल अंधकार का ही साक्षात्कार कर पाएँगे। आत्मतत्त्व के प्रकाश से तो अब भी वंचित ही रहेंगे। हमारा यत्न ऐसा होगा जैसे कि बिना SIM Card (सिम कार्ड) वाले मोबाइल से किसी से सम्पर्क जोड़ना। बिना एक्टिवेटिड (activated) सिम कार्ड के वह यंत्र और हमारे यत्न निष्फल ही होंगे। ठीक यही विफलता एक साधनारत साधक के हाथ लगती है, जब वह त्रिकुटि (आध्यात्मिक हृदय) पर ध्यान तो टिकाता है, परन्तु उसका ‘दिव्य सिम कार्ड’ सक्रिय नहीं होता।
यह ‘दिव्य सिम कार्ड’ (Spiritual SIM Card) क्या है? सभी प्रमाणित शास्त्रों के अनुसार इसे ‘तृतीय नेत्र’, ‘दिव्य दृष्टि’ या ‘शिव-नेत्र’ कहते हैं, जो हमारी त्रिकुटि अर्थात् ‘आध्यात्मिक हृदय’ के बीचोंबीच स्थित होता है। एक पूर्ण गुरु अथवा सद्गुरु ‘ब्रह्मज्ञान’की दीक्षा देते समय इसी अलौकिक नेत्र को खोल देते हैं अर्थात् ‘दिव्य सिम कार्ड’ को एक्टिवेट कर डालते है। इस दिव्य दृष्टि के उन्मीलित होते ही, भीतर स्थित आत्म-तत्व का प्रकट दर्शन होता है। साधक अपने इस तृतीय नेत्र से आत्म-प्रकाश का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है।

पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट ने भी अपने एक चित्र में इसी स्थल के इर्द-गिर्द तेज़ किरणें अथवा आभा-मंडल दिखलाया है। यह संकेत करने हेतु कि इसी स्थल पर आत्म-स्वरूप के विलक्षण प्रकाश की अनुभूति होती है। अकसर महानुभावों का यह मानना होता है कि आत्म या परमात्म तत्त्व दर्शनीय नहीं होता। परन्तु यह धारणा न तो शास्त्रानुकूल है और न ही तत्त्वज्ञानियों के मत से मेल रखती है।

अतः सद्गुरु द्वारा प्रकट ‘दिव्य-नेत्र’से परम या आत्म-तत्त्व का दर्शन किया जाता है। इस प्रकाश स्वरूप में ही साधक का मन एकाग्र व लीन होता है। और यहीं से होता है, ‘ध्यान’का मंगलारंभ! इसलिए सारांशतः ‘बाहरी नेत्रों को बंद करना ध्यान नहीं, अपितु दिव्य-नेत्र का खुल जाना ध्यान का आरम्भ है।’

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